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Full text of "Islam Ka Parichaya (H)"

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इस्लाम का परिचय 


। वहीदुद्दीन ख़ाँ 


अनुवादक 
नसीम ग्राज़ी फ़लाही 


॥8,4५ 7७ ए७रा (प्&९४७ (प्रांझग) 
इस्लामी साहित्य ट्रस्ट प्रकाशन न० -]7 
(सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन 


कितग्ब का नाम: इस्लाम का तआरूफ्‌ (उर्दू) 
लेखक ४ मौलाना वहीदुद्दीन ख़ाँ 
पृष्ठ 2 24 

बारहवां संस्करण : अक्तूबर 20]8 ई० 

संख्या 7 ]00 

मूल्य ४ २१5.00 


॥8छाप 8-8088-790- 


मुद्रक ४ प्र. 8. शाग्रॉचव$, [7णा०8 (४४, एए, 


बिस्मिल्लाहिररमानिर्रहीम _ 


'अल्लाह, रहमान रहीम के नाम से' £& 


[आर्य समाज स्युहारा, जिला बिजनौर ने अपने चौंसठ वर्षीय समारोह के 
अवसर पर नवम्बर सन्‌ १९५९ के अन्त में एक सप्ताह मनाया। इस 
मौके पर २९ नवम्बर को एक. आम धार्मिक सभा भी हुई जिसमें विभिन्न 
धर्मों के विद्वानों ने शामिल होकर अपने विचार व्यक्त किये। यह लेख 
इसी अन्तिम सभा में पढ़ा गया।] 
इस जगत का एक खुदा (ईश्वर) है जिसने इसे पैदा किया है और वही 
इसका मालिक है।.खुदा ने एक ख़ास योजना के तहत हम को पैदा किया 
है, जिसकी जानकारी वह अपने खास और चुने हुए बन्दों के हरा हम तक. 
भेजता है, जिन को हम रसूल और पैगृम्बर कहते हैं। हजरत मुहम्मद 
_(स०) इसी सिलसिले के अन्तिम रसूल हैं। और अब पूरी दुनिया को आप 
की पैरवी करनी है। जो व्यक्ति आप के संदेश को पाये और फिर-उसको - 
न अपनाये, वह सिर्फ आप ही का इन्कार नहीं करता, बल्कि वास्तव में 
खुदा के तमाम नबियों का इन्कार कर देता है। ऐसा व्यक्ति खूदा का 
आज्ञाकारी नहीं, बल्कि उसका अवज्ञाकारी और नाफ़रमान है-और खुदा 
की कृपांओं और रहमतों में उसकां कोई हिस्सा नहीं है।' यह है संक्षेप में 
इस्लाम का परिचय जिंस की मुझे इस लेख में व्याख्या करनी है। 
खुदा का वजूद - - ॥॒ 
सबसे पहले इस सवाल को लीजिये कि इस जगत का एक खुदा है। 
कछ लोग इस बात को नहीं मानते। उनका कहना है कि यह पूरा 
कारखाना केवल एक आकस्मिक और इत्तिफाकी घटना-क़े रूप में वजूद 
में आ गया है और अपने आप चला जा रहा है। हक्सले के शब्दों में :--छ 
_बन्दर एक-एक टाइपराइटर लेकर बैठ जायें और अरबों खर्बों साल तक 
ः | 


अललटप तरीके से उनको पीटते रहें तो हो सकता है कि उनके काले किये 
हुए कागजों के ढेर में किसी पन्ने पर शेक्सपियर की एक कविता निकल 
आये। इसी तरह अरबों और खर्बो साल तक भूत-द्रव्य की अंधी क्रिया के 
बीच बिल्कुल संयोग से यह संसार बन गया है। 
यह जवाब जिसने शताब्दियों से लोगों को धोखे में डाल रखा है, 
वास्तव में कोई जवाब नहीं है, बल्कि कुछ शब्दों का योगमात्र है, क्योंकि 
संयोग' या 'घटनां' स्वतः कोई चीज़ नहीं है। फिर जो चीज़ खद-ही 
अपना वजूद न रखती हो, वह किसी दूसरी चीज़ को वजद में लाने का 
सबब कैसे बन सकती है। यही वजह है कि जगत की यह व्याख्या जगत 
के ऊपर बिल्कल लागू नहीं होती। यह सिर्फ़ एक बेबुनियाद दावा है, जो 
दिमाग में गढ़ लिया गया है और जगत की मल बनावट से इसका कोई 
सम्बन्ध नहीं है। इसके विपरीत खूदा की धारणा जगत के साथ बिल्कल 
मेल खा जाती है, वह खुद जगत के भीतर से बोल रही है। 
यह जगत इतना सुव्यवस्थित और इतनी बामकसद है कि इसके बारे 
में सोचा भी नहीं जा सकता कि वह किसी आकस्मिक घटना के 
फलस्वरूप वजूद में आ गया होगा। ज़मीन पर जानंदार के जीवन के लिए 
, जो परिस्थितियां और हालात जुरूरी हैं, वे पूरे तौर से यहां मौजूद हैं। क्या 
सिर्फ़ संयोग और इत्तिफाक़ के नतीजे में इतनी अच्छी परिस्थितियां पैदा 
हो सकती हैं? 
जमीन अपनी धुरी पर एक हजार मील प्रति घंटा की चाल से लट्टः की 
तरह घूमती है। अगर जमीन की चाल एक सौ मील प्रति घंटा होती तो 
हमारे दिन व रात आज के दिन व रात से दस गुना अधिक लम्बे होते। 
जमीन की तमाम हरियाली और हमारी बेहतरीन फसलें सौ घंटे की 
लगातार धूप में झुलस जातीं और जो बच रहतीं, वे लम्बी रात में पाले से 
बर्बाद हो जातीं। 
|! सूरज जो हमारी जिन्दगी का स्रोत है, अपनी सतह पर बारह हजार 
#; डिग्री फारेनहाइट से दहक रहा है। यह तपन इतनी ज्यादा है कि बड़े-बड़े 
पहाड़ भी इस के सामने जलकर राख हो जायें, परन्तु वह हमारी जमीन से 
है. 2 


“इतनी उचित दूरी पर है कि यह ''लगातार दहकने वाली अंगीठी ” यानी 
संरज हमें हमारी जरूरत से ज्यादा जर्रा भर भी गर्मी न दे सके। यदि सूरज 
अपनी दगनी दरी पर चला जाए तो जमीन पर इतनी सर्दी पैदा होगीं कि 
हम सब लोग जम कर बर्फ हो जायेंगे और अगर वह आंधी दूरी पर आ 
जाए तो जमीन पंर इतनी गर्मी और तपन बढ़ जायेगी कि तमाम जानदार 
और तमाम पौधे जल कर राख के ढेर हो जायेंगे। का 

जमीन का गोला वांयमण्डल में सीधा खड़ा नहीं है, बल्कि २३० का 
/कोण बंनाता हुआ एक ओर झुका हुआ है। यह झुकाव हमें हमारे मौसम 
देता है। यह झकाव न होता तो सम॒द्र से उठती हुईं भाप सीधे उत्तर या 
दक्षिण को चली जातीं और हमारे महाद्वीप बर्फ़ से ढके रहते। 

चांद हम से लगभग ढाई लाख मील की दूरी पर हैं। इस के बजाय 
अगर यह सिर्फ़ एक लाख मील की दूरी पर होता तो समुद्रों में ज्वार-भाटा 
की लहरें इतनी ऊँची उठतीं कि धरती का पूरा गोला दिन में दो बार पानी - 
में डब जाता और बड़े-बड़े पहाड़ लहरों के टकराने से घिस कर खत्म हो. 
जाते। 

ये हैं हमारी सृष्टि की कछ अति साधारण और बहुत ही सांदी $ 
घटनायें। इनके सिवा बेशुमार ऐसी घटनायें हैं जो प्रकट करती हैं कि .. 
हमारी जमीन से इन का मेल केवल संयोग द्वारा नहीं हो सकता और न॒_ 
एकमात्र संयोग इन्हें बाकी रख सकता है। निश्चय ही .कोई है, जो 
इनं-घटनाओं को वजद में लाया है और उनको इतने सुब्यवंस्थित ढंग से 
निरन्तर बाकी रखे हुए है। यह सृष्टि इतनी सुसंगठित और सुब्यवस्थित 
है कि जब भी हम उस की किसी घटना को ब्यान करते हैं तो वास्तव में ' 
उस को सीमित कर देते हैं। जगत के एक-एक कण के भीतर नीति, विधि 
और हिकमतों के ऐसे खजाने छिपे हैं कि जब भी हम उनमें से किसी एक 
का उल्लेख करते हैं तो ऐसा महसूस होता है मानो उसको हम मामूली दर्जे." 
की चीज बना कर पेश कर रहे हैं। ऐसी एक सृष्टि को खुदा की रचना 
और मखलक मानना यदि किसी को ख़िलाफ़ अक्ल मालूम होता हैःतो इस 
से ज़्यादा अकल के खिलाफ बात यह है कि इस सृष्टि को ब्रिना खुदा के : 


लक 


मान्त लिया जाये। 
कुछ लोग कहते हैं कि अगर खुदा ने सब चीजें पैदा की हैं तो ख॒द खुदा 

को किस ने पैदा किया है? मगर यह एक ऐसा सवाल है जो हर हाल में पैदा 
होता है, भले ही हम खुदा को मानें या न मानें। 

. हम॑ दो में से किसी एक चीज़ को बिलासबब मानने पर मजबर हैं या 
. खुदा को बेसबब मानें या सृष्टि को। हमारे सामने एक विशाल जगत है 
जिसको हम देखते हैं, और जिसका हम अनुभव करते हैं। हम मजबर हैं 
कि इस सृष्टि के वजूद को मानें, हम इस का इन्कार कर ही नहीं सकते। 
फिर हम या तो यह कहें कि सृष्टि खुद से वजूद में आ गई है या यह कहें कि 
कोई और सत्ता और ताकत है जिस ने उस को बनाया है। दोनों शक्ल में 
हम किसी न किसी को बिला सबब स्वीकार करेंगे, फिर क्यों न हम खुदा 
को बिला सबब मान लें, जिस को मानने की शक्ल में हमारे तमाम 
सवालों का जवाब मिल जाता है, जबकि सृष्टि को बिला सबब मानने की 
शक्ल में कोई समस्या हल नहीं होती और वे तमाम सवाल जो इस 
समस्या के चारों ओर से पैदा होते हैं, वे सब के सब अपनी जगह पर बाकी 
रहते हैं। 
कुछ लोग दार्शनिक गूढ़ताओं द्वारा यह साबित करने की कोशिश 

करते हैं कि.सृष्टि कोई चीज ही नहीं है, सब कछ हमारा भ्रम है। परन्त 
एक व्यक्ति जब यह बात कहता है तो ठीक उसी वक़्त वह सृष्टि के वजद 
को स्वीकार कर लेता है। आख़िर यह सवाल ही क्‍यों पैदा हुआ कि सष्टि 
कोई चीज है या नहीं है? सवाल का जाहिर होना खुद जाहिर करता है कि 
कोई चीज है जिसके बारे में सवाल किया जा रहा है और कोई है जिसके 
दिमाग में यह सवाल पैदा हो रहा है-इस प्रकार भ्रमवाद का यह दर्शन 
'एक ही समय में मनृष्य और सृष्टि दोनों को स्वीकार कर लेता है। 


खूदां के साथ हमारा सम्बन्ध . 


खुदा को मानने के बाद फौरन ही यह सवाल पैदा होता है कि उसके 
साथ हमारा सम्बन्ध कया है। पचास साल पहंले यह विचार किया जाता 


झ 


' था कि अगर खदां का कोई बजूद है भी, तो इससे हमारा सम्बन्ध नहीं हो 
सकता, परन्‍त आधनिक क्वानटम सिद्धांन्त ढ्वारा खूद साइंस ने इसका 
- खंडन कर दिया है। पहले यह समझा जाता था कि सुष्टि एक मंशीन है. 
जो एक बार हरकत में लाने.के ब्राद लगातार चली जा रही है। इस 
सिद्धांत पर साइंसदानों 'को इतना अधिक विश्वास था कि उन्‍नीसवीं 
शताब्दी के अन्त में बर्लिन के प्रोफ़ेसर माक्स प्लान्क (५४४ ए]बाट0) 

* ने जब रोशनी के बारे में कुछ ऐसी व्याख्यायें पेश। क जो सुष्टि के मशीन 
होने को गलत सिद्ध कर रंही थीं तो इस पर तीव्र आलोचनायें होने लगीं , 
और उसका मज़ाक उड़ाया गया, परन्तु इस सिद्धान्त न्‍त को जबरदस्त 

' सफलता प्राप्त हई और अन्ततंः बह तरक्की करके आधुनिक क्वानटम 
सिद्धान्त (00कपा) ॥॥609) के रूप में भौतिक शास्त्र के .. 
* महत्त्वपर्ण सिद्धान्तों में गिना जाता है। * 
प्लान्क का सिद्धांत अपने आरम्भिक रूप में यह था कि प्रकृति 
छलांगों द्वारा हरकत करती है। सन्‌ १९१७ में आइन स्टाइघ ने इस बात 


की व्याख्या की कि प्लान्क का सिद्धान्त केवल अनिरन्तरता ' 


(०४०णाएपरप्(9) ही सिद्ध नहीं करता, बल्कि अधिक क्रान्तिमय 
परिणामों का पोषक है। यह कार्य-कारण नियम को उसके उच्च स्थान से 
अलग कर रहा है, जो इससे पहले प्राकृतिक संसार की तमाम घटनाओं 
का' एक मात्र पथ प्रदर्शक समझा जाता था। प्राचीन विज्ञान ने पूरे 
_ विश्वास-के साथ यहं एलान किया था कि प्रकृति केवल एंक ही रास्ता 
अपना सकती है, जो सबब और नतीजे की बराबर कड़ियों के मुतांबिक" 
८ 32 आरम्भ से लेक़र परिणाम तक तै हो चुका हैं, परन्तु अब मालूम 
हुआ कि यह एकमात्र अपूर्ण ज्ञानेष्का फल था। पहले यह कहा जाता था 
कि खुदा को अगर मानना ही है तो प्रथंम कारण के रूप में उसे मान लो, 


बरन आज सृष्टि को खदा की कोई ज़रूरत नहीं है। अब मालूम हुआ कि 


* व्याख्या के लिये देखिये ॥००८)॥ $ठ०॑ंशवा0० 7॥0एश0 ?.?. 2-20 


छ 


सष्टि केवल पहली बार गतिमान होने के लिए किसी प्रथम संचालक की 
महताज नहीं थी, बल्कि वह प्रतिक्षण गतिमान बनाए जाने की मुहताज . 
है। क्वान्टम सिद्धान्त दसरे शब्दों में यह बताता है कि सृष्टि एक 
स्वसंचालित मशीन नहीं है, बल्कि वह एक ऐसी मशीन है, जिसको; 
प्रतिक्षण चलाया जा रहा है। एक जीवित व स्थिर सत्ता की कृपा है जो इसे 
बाकी रखे हए है। यदि एक क्षण के लिये भी वह अपनी कृपा वापस ले ले 
तो सम्पर्ण सृष्टि इस तरह खत्म हो जायेगी, जैसे सिनेमा घर में बिजली 
का सिलसिला टटने पर पर्दे से तमाम चित्र ग्रायब हो जाते हैं और दर्शकों 
के सामने एक सफ़ेद कपड़े के अलावा और क॒छ नहीं रहता। मानां इस 
संसार का प्रत्येक कण अपने वजूद और अपनी हरकत के लिये प्रतिक्षण 
सर्व-शक्तिमान सत्ता से आज्ञा चाहता है। इसके बिना वह अपनी हस्ती 
को कायम नहीं रख सकता। 
जगत के साथ खुदा का यह संबंध खुद बताता है कि मनुष्य के साथ 
उसका संबंध क्‍या होना चाहिये। स्पष्ट है क़रि जिसने हमें पैदा किया है, जो 
हमारे लिए मुनासिब तरीन हालात को बराबर बाकी रखे हुए है. और 
' उनको हमारे हक़ में ठीकठाक करता रहता है, जो प्रतिक्षण हमारा 
पालन-पोषण कर रहा है, उसका हमारे ऊपर यह अनिवार्य अधिकार है 
कि हम अपने मुकाबले में उसकी उच्च व श्रेष्ठ हैसियत को स्वीकार करें 
और बिल्कुल उसके बन्दे बन जायें। मनुष्य जिस आचरण-व्यवस्था से 
वाकिफ़ है, उसमें सबसे ज्यादा स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण आचरण यह है कि 
एहसान करने वाले का एहसान माना जाये, एहसान करने वाला भले ही 
अपनी ओर से न दबाये, परन्तु जिसके साथ एहसान किया जाता है वह 
खूद उसके सामने दब जाता है, एहसान करने वाले के आगे उसको नजर 
- उठाने की हिम्मत नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि खुदा का खुदा होना 
खुद ही इस बात का तकाजा करता है कि हम उसकी खुदाई (ईश्वरत्त्व) 
को स्वीकार करें और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने को अपने जीवन का 
मकसद बनायें। बन्दे की ओर से खुदा के आज्ञापालन के लिये इसके 
अलावा किसी और दलील की जरूरत नहीं। 


ध्3 


लेकिन बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है। यह केवल सत्य के जान लेने का 
तकाजा नहीं है कि हम खुदा की खुदाई और उसके मुकाबले में अपंनी 
गलामी को स्वीकार करें। सच तो यह है कि हमारे लिए इसके अलावा 
और. कोई राह नहीं है। हंमारें जीवन की सारीं समस्‍यायें खुदा से 
सम्बन्धित हैं। हमको जो कछ मिलेगा उसी से मिलेगा, उसके अलावा 
: कोई और हमें कछ नहीं दे सकता। हम इस सृष्टि में इतने-बेबस और - 
मजबर हैं कि खुदा की मंदद के बिना एक क्षण के लिये भी अपना वजूद 
बाकी नहीं रख सकते। फिर खुदा को छोड़कर हम और कहां जा सकते हैं। 
जरा ध्यान दीजिये, भारत की उत्तरी सीमा पर हिमालय पहाड़ का 
ढाई हजार मील लम्बा यह सिलसिला किसने कायम किया है? हमने या 
खुदा ने? यदि हिमालय पहाड़ न होता तो बंगाल की खाड़ी से उठने वाली 
* दक्षिणी पूर्वी हवायें जो हर साल हमारे लिये वर्षा लाती हैं, बिल्कुल वर्षा न 
करती और सीधी रूस की ओर निकल जातीं, जिसका नतीजा यह होता 
कि पूरा उत्तरी भारत .मंगोलिया की तरह रेगिस्तान होता। 
आपको. मालूम है कि सूर्य अपनी असाधारण आकर्षण-शक्ति से 
हमारी जमीन को खींच रहा है और जमीन एक केन्‍्द्रापण बल 
(0[०७४४४४प४७] 007००) द्वारा उसकी ओर खिंच जाने से अपने आपको 
रोकती है और इस तरह वह सूर्य से दूर रह कर वांयुमण्डल के भीतर 
अपना बजूद बाकी रखे हुए है। अगर किसी दिन जमीन का यह बल खत्म 
हो जाये तो वह लगभग छः: हज़ार मील प्रति घंटा की चाल से सूर्य की ओर 
“खिचना शुरू हो. जायेगी और कछ हफ्ता में सूर्य के भीतर इस तरह जा 
मिरेगी, जैसे किसी बहुत बड़े अलाव के भीतर कोई तिनका गिर जाये। 
स्पष्ट है कि यह ताकत जमीन को हमने नहीं दी है, बल्कि उस ख़ुदा ने दी - 
है, जिसने जमीन को पैदा किया है। 
सृष्टि के जिस हिस्से में हम रहते हैं उसका नाम सौर संहति (७०६ 
$५$९॥) -है। अगर आप किसी बहुते दूर के स्थान पर बैठ कर इस 
व्यवस्था का निरीक्षण कर सकें तो आप देखेंगे कि अथाह शून्य के भीतर 
एक. आग कां गोला भड़क रहा है, जो हमारी जमीन से तेरह लाख गुना. 
९ 


बड़ा है, जिससे इतने बड़े-बड़े अंगारे निकलते हैं, जो कई-कई लाख मील 
तक वायमण्डल में उड़ते चले जाते हैं, इसी का नाम सूर्य है। फिर आप 
उन ग्रहों को देखेंगे जो सूर्य के चारों ओर अरबों मील के घेरे में पतिंगों की 
तरह चक्कर लगा रहे हैं। इन दौड़तीं हुई दुनियाओं में हमारी जमीन 
अपेक्षत: एक छोटी दुनिया है, जिसकी गोलाई लगभग २५ हजार मील 
है। यह हमारा सौर संहति है, जो देखने नें बहुत बड़ा मालूम होता है, 
परन्तु सृष्टि के विस्तार के मुकाबले में इसकी कोई हैसियत नहीं। सृष्टि में 
इतने बड़े-बड़े तारे हैं कि जिनके ऊपर हमारा पूरा सौर संहति रखा जा 
सकता है। इस अनन्त व असीम सृष्टि में हमारी जमीन वायुमण्डल में 
उड़ने वाले एक कण से भी ज़्यादा मामूली है। हम एक छोटे से कीड़े की 
भांति उस कण से चिमटे हुए हैं और शून्य में.एक कभी न खत्म होने वाली 
: सरात्रा में व्यस्त हैं। 
यह सृष्टि के भीतर हमारी हैसियत है। विचार कीजिए, मनुष्य किस 
दर्जा तुच्छ और हकीर है और बाह्य शक्तियों के मुकाबले में कितना 
जउप्यादा मजबूर है। फिर जब हमारी हैसियत यह है तो हम जगत के पैदा 
करने वाले से मदद मांगने के अलावा और क्या कर सकते हैं। जिस प्रकार 
एक छोटे बच्चे की पूरी दुनिया उसके मां-बाप होते हैं। उसका जीवन, 
उसकी ज़रूरतों की पूर्ति और उस के,भविष्य का आश्रय बिल्कल उस के 
मां-बाप पर होता है। इसी तरह बल्कि इस से कहीं ज्यादा मनुष्य अपने 
पालनहार का मुहताज है! हम खुदा की मदद और उसके पथ-प्रदर्शन 
और रहनुमाई के बिना अपने लिए किसी चीज़ के बारे में सोच भी नहीं 
संकते। वही हमारा सहारा है और उसी की ओर हमें दौड़ना चाहिए। 
इस तफ़्सील से यह बात साफ़ हो गई कि इन्सान खुदा की रहनुमाई 
और उस की मदद का मुहताज है। खुदा की ओर से इन्सान की यही 
' हैसियत निश्चित होती है और खुद मनुष्य के लिये भी इस के अलावा कोई 
चारा नहीं है कि वह खुदा से अपने लिए मदद और रहनुमाई की प्रार्थना 
करे। 


१० 


ज्ञान की प्राप्त 


यहां प्रहुंच कर जब हम अपने चारों ओर की दुनिया पर विचार करते 
हैं तो हमें मालूम होता है कि जगत के पैदा करने वाले की ओर से अपनी 
पैदा की हुई चीज़ों के लिए मदद और रहनुमाई का एक मुसलसल अमल 
जारी है। जिसको जिस चीज़ की जरूरत है, उस को वह चीज़ पहुंचाई जा 
रही है। एक मामूली भिड़ की मिसाल लीजिये। भिड़ का तरीका है कि 
अंडे देने से पहले जमीन में एक गड़हा खोदती है और एक टिट्ठे को काबू में 
कर के उस को गड़हे में रख देती है। ऐसा करते समय वह बड़ी चतुराई से 
टिट्ठे के उसी खास स्थान पर डंक मारती है, जिस से टिट्ठा मरता नहीं, 
केवल बेहोश रहता है और ताजा गोश्त का भंडार बन जाता है। भिड़ 
अब इसी बेहोश टिट्ठे के चारों ओर अंडे देती है ताकि अंडों से निकल कर 
बच्चे उस जीवित टिह्ठे को धीरे-धीरे.खाते रहें, क्योंकि मुर्दा गोश्त इन 
बच्चों के लिये नुक़सानदेह है। इतना इन्तिज़ाम कर लेने के बाद भिड़ वहां 
से उड़ जाती है और फिर कभी आकर अपने बच्चों को नहीं देखती। 
परन्तु इस के बावजूद भिड़ का यह बच्चा जब बड़ा होता है तो वहे भी 
ठीक इसी अमल को दुहराता है। तमाम भिड़ें इस काम को एक बार और 
'पहली बार बिल्कुल ठीक-ठीक करती है।* विचार कीजिये कि वह कौन 
है जो इस भीड़ के बच्चे को सिखाता है कि अपनी नस्ल को जारी रखने के 
लिए वह भी वही अमल करे जो उसके मां-बाप ने उस के साथ किया था। 
हालांकि अपने मां-बाप के अमल को उसने कभी नहीं देखा। 
दूसरी मिसाल उस लम्बी मछली की है जिसे अंग्रेज़ी में एल (7०।) 
कहते हैं। ये अनोखे जानदार अपनी जवानी में हर जगह के जल-केन्द्रों 
और नदियों से निकल-निकल कर बर्मडाज द्वीप के पास समुद्र. की एक 
गहरी तह में जाते हैं। यूरोप की एलें अटलांटिक में तीन हजार मील का 
रास्ता तय कर के यहां पहुंचती हैं। वहीं ये मछलियां बच्चे दे कर मर 


* इसी .अद्भुृत क्रिया को देख कर दार्शनिक बर्गसां ने कहा था- क्‍या भिड़ ने किसी 
स्कूल में जीवनशास्त्र का घोर अध्ययन किया है। 


११ 


जाती हैं। ये बच्चे जब आंखें खोलते हैं तो अपने आप को सुनसान 
जल-केन्द्र में पड़ा हुआ पाते हैं। उन के पास बजाहिर मालूमात करने का 
कोई साधन नहीं-होता। फिर भी वे वहां से लौट कर दुबारा उन्हीं किनारों 
पर आ लगते हैं, जहां से उनके मां-बाप चले गए थे। वे आगे बढ़ते हुए 
अपने मां-बाप वाली नदियों, झीलों, और जल-केन्‍्द्रों में पहुँच जाते हैं। 
यही वजह है कि किसी भी जल-केन्द्र से एलें हमेशा के लिए ग़ायब नहीं 
हो जातीं। और यह सब कुछ इस प्रकार होता है कि अमरीका की कोई 
एल यूरोप में नहीं मिलती और न यूरोप की कोई एल अमरीका के समूद्रों 
- में पाई जाती है। आने जाने की यह मालूमात उन्हें कहां से हासिल होती 
हैं? 
यह काम “'वह्य” द्वारा होता है। वह्य पैग़ाम पहुंचाने के उस 
अप्रकट सिलसिले को कहते हैं, जो खृदा और उस की मख्लक के बीच 
जारी है। कोई प्राणी जीवन ग॒ज़ांरने के लिए क्‍या करे और सृष्टि के 
रचयिता ने अपनी सामूहिक योजना के भीतर उस के जिम्मे जो काम 
छोड़ा है, उसे किस प्रकार पूरा करे, इसी को बताने का नाम वहय है। इस 
वह्य की दो किसमें हैं। एक वह जिस का सम्बन्ध मनृष्य के सिवा अन्य 
चीज़ों से है और दूसरी वह जिस का सम्बन्ध मनुष्य से है। ;। 
. मनुष्य के अलावा जितनी जानदार चीजें इस जुमीन पर पाई जाती हैं, 
वे सब की सब इरादे से खाली हैं। उन का काम किसी सोचे समझे फैसले 
व इरादे के तहत नहीं होता, बल्कि एक अनजाने रूप में स्वाभाविक 
मैलान के तहत होता है, जिस को हम. 'प्रकृति' कहते हैं। ये मानो एक 
प्रकार की जिन्दा मशीनें हैं जो-सीमित दायरे में अपना तयशुदा काम 
कर के खत्म हो जाती हैं। इस प्रकार के जानदारों के लिए 'छोड़ने व 
अपनाने' का कोई प्रश्न नहीं। इसलिए इन के पास जो वह्य आती है 
वह हकक्‍म और कानून की शक्ल में नहीं आती, बल्कि 'प्रकृति' या 
स्वभावं' की शक्ल में आती है। इन॒की बनावट ही इस तरह की होती 
है कि वे एक ख़ास काम को बार-बारं दृहराते रहें, लेकिन मनुष्य एक 
ऐसी रचना है जो फैसले की ताकत रखता है। वह अपने इरादे से किसी: 
* १२ 


मकर हक 


काम को करता है और किसी काम को नहीं करता। वह एक- काम 
करना शरू करता है फिर उसे जान बूझ कर छोड़ देता है और एक 
काम नहीं करता और बाद को उसे करने लगता है। इस से स्पष्ट हुआ 
कि मनष्य भी हॉलाकि उसी तरह खुदा का बन्दा है जिस तरह उसंकी 
“दूसरी रचनायें, परन्तु उसको इम्तिहान की हालत में रखा गया है। जो 
-काम दसंरी चीज़ों से 'प्रकृतिं' व स्वभाव के तहत लिया जा रहा है 
इन्सान को वही काम अपने फैसले और इरादे से करना है, यही वज़ह-है 
कि इन्सान के पास जो वह्य आती है, वह हुक्म और कानून की शक्ल 
में आती है। दूसरे शब्दों में आम जानदारों की वह्य उनके 'स्वभाव' में ' 
डाल दी गई है और इन्सान की वह्य बाहर से इसे सुनाई जाती है। आम _ 
जानदारों को क्या करना है इस का इल्म वे पैदाइशी तौर पर अपने साथ 
ले कर आते हैं। इस के विपरीत इन्सान जब अक्ल व होश की उम्र को 
पहंचता है तो ख़दा की ओर से पुकार कर उसे बताया जाता हैं कि तुम 
को क्‍या करना चाहिये और क्‍या नहीं करना चाहिये। .. ॥ 
यह : पैगाम पहुंचाने का जरिया. रिसालत (ईश दूतत्त्व) है। 
व्यक्ति यह पैग़ाम लेकरः आता है, उस को हम रसूल कहते हैं। उस का 
तरीका ग्रह है कि अल्लाह अपने बन्दों में से एक नेक बन्दे को चुन लेता 
है और उस के दिल पंर अपना पैग़ाम उतारता है। इस प्रकांर रसूल बह ' 
व्यक्ति है जो सीधे (97००५) खुदा से उसकी प्रसन्नता का ज्ञान 
हासिल कर के दूसरे इन्सानों तक पहुंचाता है। रसूल मानो बीच की वह 
कड़ी है जो बन्दों को उस के खुदा से जोड़ती है। | ह॒ 
वबहय' की समस्या 
* “अब हमें इस सवाल पर विचार कंरना हैं कि. किसी ख़ास बन्दे पर 
खुदा की वह्य किस प्रकार आंती है और यह कि मौजूदा जमाने में वह 
कौन-सी 'वह्य'' है जिससे हमें खुदा: की प्रसन्नता का ज्ञान प्राप्त होगा।. - 
..._ इस समस्या को समझने के लिये एक मिसाल लीजिये। इन्सान ने 
जो मशीनें और जो अस्त्र बनाये हैं वे लगभग सबके सब लोहे के हैं।। 


१३ 


यदि लोहे का इतिहास सामने रखा जाये तो यह बात अति विचित्र 
मालूम होगी कि मनुष्य ने किस तरह उसे मालूम किया, जबकि मनुष्य 
को लोहे के बारे में पहले से कोई ज्ञान न था, उसने किस प्रकार उसके 
कणों को इकट्ठा किया जो विभिन्न पदार्थों के सम्मिश्रण की शक्ल में 
जमीन की विभिन्न चट्टानों से मिलकर बिखरे पड़े थे, और फिर उन्हें 
शुद्ध लोहे की शक्ल में बदल दिया? 

यही हाल दूसरे आविष्कारों का भी है। यह बात किसी तरह समझ 
में नहीं आती कि इन आविष्कारों और खोजों की ओर इन्सानी अक्ल की 
रहनुमाई किस प्रकार हुई? वह कौन-सी. ताकत है जो अनुभव एवं 
निरीक्षण करते समय एक वैज्ञानिक को इस मर्म तक पहुंचा देती है, 
जहां पहुंचकर उसे एक मुफीद और कारामद नतीजा हासिल होता है? 
जो. बात हमको मालूम नहीं थी, वह कैसे मालूम हो गई? इस ज्ञान का 
साधन वही ईश्वरीय कृपा' है जिसे हम वह्य कहते हैं। सब कुछ 
जानने वाला अपने ज्ञान में से थोड़ा-सा हिस्सा उसको दे देता है, जो 
कुछ नहीं जानता। यह कृपा वह्य का प्रारम्भिक भाग है, जो अनजाने: 
रूप में आती है और प्रत्येक व्यक्ति-को उसमें से हिस्सा मिलता है। 

दूसरे प्रकार की वह्य अधिक प्रगतिशील है, जो जानते-बूझते 
आती है और केवल उन लोगों के पास आती है, जिनको रिसालत 
(ईश-दूतत्त्व) के लिये चुन लिया गया हो। इन्सान के पास सत्य का 
ज्ञान और जीवन व्यतीत करने कां तरीका इसी दूसरी प्रकार की वह्य- 
द्वारा भेजा जाता है।.. 

बह्य की हकीकृत को हम बस इंतना ही समझ सकते हैं, इससे 
अधिक की मांग वास्तव में एक ऐसी मांग है जो मनुष्य के बस में नहीं: 
है। एक उड़ते हुए जहाज को जमीन से बेतार के तार द्वारा संदेश भेजा 
जाता है, जिसको हवाई जहाज पर बैठा हुआ आदमी पूरे विश्वास के 
साथ साफ़ शब्दों में सुन लेता है। यह हमारे निकट के जीवन की एक 
घटना है, मगर आज तक इसकी पूर्ण युक्ति न पेश की जा सकी कि यह 
घटना कैसे बजूद में आती है। यही हाल उन तमाम घटनाओं का है, 

१४ 


जिनको हम इस धरती पर जानते हैं। हम तमाम तथ्यों को केवल संक्षेप 
में जानते हैं। जैसे ही हम किसी तथ्य को आखिरी हद तक समझने की 
कोशिश करते हैं, हमारी शक्तियां जवाब देने लगती हैं और मालूम: 
होता है कि इस प्रकार का पूर्ण ज्ञान हमारे बस में नहीं है। ऐसी सूरत में 
- वह्य की हकीकत को अच्छी तरह समझने की मांग करना किसी ऐसे 
ही व्यक्ति का काम हो सकता है जो स्वयं अपनी हकीकृत से बेखबर 
हो। 
साइंस ने अब यह मान लिया है कि पूरी हकीकृत की जानकारी 
हासिल करना मनष्य के बस में नहीं है। इस सम्बन्ध में मैं प्रो० हाइजेन 
बर्ग (प्र४ं5०। 8278) की खोज की मिसाल पेश करूंगा, जिसे वहं 
संदिग्धता का सिद्धान्त' ([ए7709]6 ण [706 ६7॥73०५) का नाम 
देता है। जेम्जजेन्ज इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए लिखता है:- 
“परातन विज्ञान का विचार था कि किसी अणु, उदाहरणार्थ एक 
विद्युदणु (8८०७४०॥) का स्थान निश्चित रूप से बताया जा सकता है 
जबकि हम यह जान लें कि किसी खास समय में वायुमण्डल के भीतर 
उसका स्थान और उसकी रफ़्तार क्या है। यदि इन जानकारियों के 
साथ बाह्य प्रभावपूर्ण शक्तियों का भी ज्ञान हो जाये तो विद्युदणुओं 
(8॥6८४०॥७) के पूर्ण भविष्य को निर्धारित किया जा सकता था और 
अगर सृंष्टि के तमाम अणुओं के बारे में इन बातों का ज्ञान हो जाता तो 
सम्पूर्ण सृष्टि के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती थी। 
परन्तु हाइजन बर्ग के व्याख्यानुसार मौजूदा साइंस अब इस नतीजे 
पर पहुंची है कि इन बातों की खोज में प्राकृतिक नियम बाधा डाल रहे 
हैं। यदि हम यह जान लें कि एक विद्युदणु वायुमण्डल में किस स्थान पर 
है, जब भी हम ठीक-ठीक नहीं बता सकते कि वह किस रफ़्तार से 
हरकत कर रहा है। प्रकृति किसी हद तक सीमान्त विभ्रम ((88॥॥ 
० 8770०) की आज्ञा देती है, परन्तु यदि हम इस सीमान्‍न्त में घुसना 
चाहें तो प्रकृति हमारी कोई सहायता नहीं करती। बज़ाहिर ऐसा मालूम 
होता है कि प्रकृति बिल्कुल सही नापों से बिल्कूल ही अनभिज्ञ है। इसी 


१५ 


तरह अगर हमें किसी विद्युदणु की हरकत की ठीक-ठीक रफ़्तार मालूम 
' हो तो प्रकृति हमें वायुमण्डल के भीतर उसका सही स्थान पत्ता लगाने 
नहीं देती, मानो विद्युदणु का स्थान और उसकी हरकत किसी लालटेन 
की सलाइड की दो विभिन्न दिशाओं पर अंकित है। अगर हम सलाइडं 
को किसी ख़राब लालटेन में रखें तो हम दो दिशाओं के बीच के आधे 
को प्रकाश में ला सकते हैं और विद्युदणु के स्थान और उसकी हरकत 
दोनों को कछ न कुछ देख सकते हैं। अच्छी लालटेन द्वारा ऐसा नहीं हो 
सकता, क्‍योंकि हम एक पर जितना अधिक प्रकाश डालेंगे, दूसरा 
उतना ही धुंधला होता चला जायेगा। खराब लालटेन, प्राचीन.विज्ञान 
है, जिसने हमें इस भ्रम में डाल रखा है कि यदि हमारे पास बिल्कूल पूरी. 
“लालटेन हो तो हम किसी मुख्य समय पर अणु के स्थान और उसकी 
रफ़्तार का ठीक-ठींक अन्दाजा कर सकते हैं। .यही धोखा था जिसने 
साइंस में निश्चयता ([0607पगगांप्रांओा) को दाखिल कर दिया, मगर 
अब जबकि. मौजूदा साइंस के परस अधिक उत्तम लालटेन है, उसने 
हमको सिर्फ़ यह बताया है कि हालात. व हरकत का निर्धारण 
वास्तविकता के दो विभिन्न पहलू हैं, जिन्हें हम एक ही समय में प्रकाश 
में नहीं ला सकते। 
- (0967 इलंलावतट वश०एष्टगा ?. ?. 7-8). 
इस सिलसिले में आखिरी सवाल यह है कि खुदा की वह्य जो 
अलग-अलग जमानों में इन्सानों के पास आती रहती है, उनमें से 
कौन-सी वह्य है, जिसका आज के इन्सान को पालन करना है। इसका 
जवाब बिल्कल आसान है।.बाद के लोगों के लिए वही वह्य पालन 
करने योग्य हो सकती है जो सबके बाद आई हो। सरकार एक देश में 
किसी व्यक्ति को अपना राजदूत बना कर भेजती है। स्पष्ट है कि उस 
व्यक्ति का यह प्रतिनिधित्व और नुमाइन्दगी उसी समय तक के लिये 
है, जब तक वह अपने इस पद पर आसीन है, जब उसकी अवधि 
'* समाप्त हो जाये और दूसरे व्यक्ति को उस पद पर नियुक्त कर दिया 
जाये तो उसके बाद वही व्यक्ति सरकार का प्रतिनिधि होगा जिसको 


१६ 


सबसे आखिर में प्रतिनिधित्व का मौका दिया गया है। 

इस छतबार से हज़रत मुहम्मद (स०) ही वह अन्तिम रसूल हैं. 
जो आज और आगे कियामत तक के लिए मानवता के पथप्रदर्शक 
और रहनमां हैं, जो सातवीं शताब्दी में अरब से उठे थे, जिनके बाद 
न कोई नबी हुआ और:न भविष्य में कोई नबी होगा। आपका तमाम 
नंबियों के बाद आना इस बात का पर्याप्त कारण: है कि आपको और 
केवल आपको वर्तमान और भविष्यत्‌ के लिए खुदा का प्रतिनिधि 
“माना जाये, क्योंकि बाद को आने वाला अपने से पहले आने वालों को 
मन्सख कर सकता है, मगर पहले आने वाला अपने बाद आने बाले 
को मन्सख नहीं कर सकता। 

हो सकता है मानव-इतिहास की सबसे पुरानी और आरम्भिक 
धार्मिक पस्तक ऋग्वेद हो जो खुदा के आदेशानुसार संपादित की गई 
हो, जैसा कि इंजील अपेक्षत: मध्यकालीन ग्रन्थ है, परन्तु अब ये 
तमाम ग्रंथ मन्सख हो चके हैं, इसके अतिरिक्त कि इनमें से कोई 
ग्रन्थ भी अपने को अंतिम और स्थाई ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत नहीं 
करता, केवल यह बात कि वे खुदा के आखिरी हिदायतनामा , 
(कुरआन) से पहले उतारे गये थे, उनको आज के लिए मन्सूख करती 
हैं। 

एक व्यक्ति कह सकता है कि हम हजरत मुहम्मद (स०) को 
ख़ुदा का रसल ही क्‍यों मानें? मेरा जवाब यह है कि जिन कारणों से 
आप दसरे रसलों को रसूल मानते हैं, उन्हीं कारणों से आखिरी रसूल 
को रसल मानना पड़ेगा। आप किसी दूसरे के बारे में यह साबित 
करने के लिए कि वह खुदा की ओर से आये थे, जो भी नियम बनायेंगे 
और जो उक्तियां प्रस्त॒त करेंगे, ठीक उन्हीं नियमों और उक्तियों के 
आधार पर आपको मुहम्मद (स०) को भी खूदा का रसूल मानना 
होगा। अगर आप आखिरी रसूल का इन्कार करते हैं, तो आपको 
तमाम रसलों का इन्कार कर देना पड़ेगा और दूसरे रसूलों को मानते 
हैं तो आपके लिए इसके सिवा कोई चारा नहीं कि आखिरी रसूल को 


१३ 


भी स्वीकार करें और ज्योंही आप आखिरी रसूल को स्वीकार करते 
हैं, आपके लिए जरूरी हो जाता है कि उसी को. आखिरी सनद भी 
मानें। मुहम्मद (स०) को रसूल मानना और आपको आखिरी सनद 
तस्लीम न करना. दोनों बातें एक दूसरे के प्रतिकूल हैं, जो एक साथ 

: इकट्ठा नहीं हो सकतीं। खुदा के आखिरी हुक्म की मौजूदगी में उसके 
पिछले हुक्मों की. बात करना खुदा के आज्ञापालन को एक 'ऐसा 

. तरीका है, जिससे. खुंदां कभी प्रसन्‍न नहीं हो सकता, यह तो खूद अपने 
मन का आज्ञापालन है न कि खुदा का आज्ञापालन! 


इस्लाम का. संक्षिप्त परिचय 


अब मैं संक्षेप में यह ब्रतोना चाहता हूं कि वह सन्देश क्‍या है 
जिसको अन्तिम रसूल हजरत महम्मद (स०) ने हमको और हमारी 
आगामी नस्‍्लों को दिया है। ड़स॒ संदेश को चार शिर्षकों के अन्तर्गत 
इकट्ठा किया जा सकता है। 
(१) खुदा की सही धारणा। 
(२) मनुष्य के पैदा होने का मकसद और सृष्टि के साथ उसका 
सम्बन्ध। - हर 
(३) मनृष्य खुद्य से सम्बन्ध जोड़ने के लिए क्‍या करे। 
(४) व्यक्तिगत आचरण और सामाजिक कानून क्‍या हो। 
सबसे पहली. चीज़ जो रसूल ने हमको बताई वह यह कि इस 
सृष्टि. का एक खुदा है। यह खुदा एक है, कोई किसी हैसियत से भी 
उसका साभी नहीं। वह सब कुछ करने की ताकृत रखता है और वही 
. है जो तमाम घटनाओं को वजूद में ला रहा है। इस तंथ्य की एक हद 
- तक व्याख्या ऊपर आ चुकी है। यहाँ मैं कुरंआन की एक आयत 
नकल करूंगा जो इस्लामी दृष्टिकोण से खुदा की धारणा को संक्षिप्त 


* परन्तु पूर्ण रूप से प्रस्तत करती है- 


अल्लाह, वह जिन्दा खुदा जो सम्पूर्ण सृष्टि को संभाले हुए 
है, उसके सिवा कोई खुदा नहीं, उसको न ऊंघ लगती है 


पृ८छ 


और न उसे नींद आती है। जमीन व आसमान में जो कछ है, 

सब उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी आज्ञा के 

बिना बोलने की हिम्मत कर सके? वह जानता है जो कछ 

बन्दों के आगे है और जो क॒छ बन्दों के पीछे है। उसके ज्ञान 

में जो कछ है, उसमें से कुछ भी कोई हासिल नहीं कर 

सकता, मगर यह कि वह खुद ही किसी को कछ दे दे। 

उसकी हुकूमत पूरी दुनिया पर छाई हुई है और उसकी 

देखभाल उसके लिए थका देने वाला काम नहीं है। बस, वही 

एक सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ सत्ता है।” (सूरः बकरः २५५) 

दूसरी चीज जो खुदा के रसूल ने हमकी बताई, वह मनष्य के पैदा 
होने का उद्देश्य और सृष्टि के साथ उसका सम्बन्ध है। उसने बताया 
'कि मनुष्य को इस लिए पैदा किया गया है, ताकि उसे आजमाया 
जाये। मनुष्य को कर्म की स्वतन्त्रता देकर उसके पास अल्लाह ने 
अपनी प्रसन्‍नता भेज दी है। अब वंह देखना चाहता है कि कौन अपने 
स्वामी कीः प्रसन्‍नता के अनुसार चलता है और कौन उसके विरुद्ध 
अमल करता है। सृष्टि के सांथ.मनुष्य का जो सम्बन्ध है, वह भी 
इसी उद्देश्य के अन्तर्गत है। यह सृष्टि किसी व्यक्ति या राष्ट्र की 
जायदाद नहीं है, न वह कोई अललटप जगह है, बल्कि वह इसलिए 
है, ताकि मनुष्य को अपना कर्त्तव्य पूरा करने में मदद दे। यह संसार 
वास्तव में हमारा वह कर्म-क्षेत्र है जहां रहकर हमें अपना इम्तिहान - 
देना है, इसके सिवा संसार की और कोई हैसियत नहीं। हमारे इस 
इम्तिहान की एक मुद्दत है। एक व्यक्ति की मुह्ृत उसकी उम्र तक है 
और सम्पूर्ण मानवता की मुह्ृत उस समय तक है जब तक 
मानव-पैदाइश का यह सिलसिला जारी है। इसके बाद सृष्टि का 
स्वामी सबको .इकट्ठा करेगा और प्रत्येक के कर्मों के अनुसार उसको 
इनाम देगा या सजा। इस इनाम या सजा पाने की जगह जन्नत और 
जहन्नम है। 

इस धारणा का नाम आख़्रत है। मौजूदा संसार हमारे जीवन का 


१९ 


आरम्भ है और आखिरत हमारे जीवन का-अन्त। इस प्रकार अल्लाह 
ने हमारे भविष्य के बारे में हमको सूचना दी है। यह भविष्य का 
“संसार हमारी निगाहों से ओकल रखा गया -है, क्योंकि हमारी-पंरीक्षा 
की स्थिति में होने की हैसियत इसी का तकाजा करती थी। परन्तु जब 
परीक्षा की मुद्दत पूरी हो जायेगी तो यह छिपी हुई दुनिया बिल्कल 
उसी प्रकार हमारे सामने” आ जायेगी जिस -प्रकार मौंजूदा संसार 
हमको साफ़ नज़र आ रहा है। इस संसार में बज़ाहिर हमको केवल 
एक ही जीवन दिखाई देता है, परन्तु किसी वस्तु .की वास्तविकता 
ः उतनी ही. नहीं होती, जितनी वह दिखाई दे रही हो। सूर्य का 
प्रकाश-बजाहिर एक पीली. चमकदार-सी वस्तु है, परन्तु वास्तव में. 
वह. सात रंगों का, योग है। ठीक इसी तरह हमारे मौजूदा जीवन के , - 
भीतर एक और जीवन छिपा हुआ है, जिसको हम॑ मरने के बाद 
देखेंगे, जहां हम मरने के बाद पहुंचा दिये जायेंगे। ५ 
वह आखिरत एक मात्र अलौकिक सिद्धान्त नहीं है, बल्कि हमारे 
जीवन से इसका गहरा सम्बन्ध है। इतिहास से मालूम होता है कि 
जेब मनष्य खुदा के भय से बेप्ररवाह हो जाता है, तो फिर कोई चीज 
नहीं जो उसको दसरों पर अत्याचार करने और दूसरों को लूटने से 
रोक सके। जिन लोगों ने केवल क़ानून और राजनीति द्वारा सुधार की 
. कोशिश की है, उनकी कोशिशों ने केवल लूट खसोट की शकक्‍्लों को 
बदला है, असल स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं किया है। वास्तविर्के 
सधार तो उसी समय सम्भव है जबकि मनुष्य के भीतर पथभ्रष्टता से 
बचने और संमार्ग पर चलने की भावना पैदा हो जाये। इस भावना को 
उभारने वाली चीज केवल खुदा की पूछ-ताछ और उस की पकड़ का 
भय है। हम मजबूर हैं कि न्‍्यायप्रिय व सदाचारी व्यक्ति बनने के 
लिए आख़्रत का सहारा लें। इसके सिवा किसी और साधन द्वारा हम 
इस मकसद को हासिल नहीं कर सकते। 
कछ लोग कहते हैं कि आखिरत की धारणा एक मन-घड़त 
धारणा है। हालांकि जिन दलीलों कों आधार मान कर आख़िरत को 


२० 


'काल्पनिक' कहा जाता है, यदि उनको सही मान लिया जाये तो 
सम्पूर्ण सृष्टि काल्पनिक माननी पड़ जाती है, यहां तक कि हमारा 
अपना वजूद भी काल्पनिक मात्र मालूम होने लगता है। परन्तु मैं इस 
पर बहस नहीं करूंगा। इसके जवाब में यहां मैं केवल इतना कहना 
चाहता हूं कि आख़िरत यदि काल्पनिक है, तो वह हमारे लिए इतनी 
जरूरी क्‍यों है? ऐसा क्‍यों है कि इसके बिना हम सही मायनों में कोई 
सामाजिक व्यवस्था बना हीं नहीं सकते? इन्सान के दिमाग़ से इस 
धारणा को निकालने के बाद क्‍यों हमारा पूरा जीवन नष्टप्राय हो 
जाता है? क्या कोई काल्पनिक धारणा जीवन के लिए इतनी जरूरी 
हो सकती है? क्‍या इस सृष्टि में कोई ऐसी मिसाल पायी जाती है कि 
एक चीज वास्तविकता में मौजूद न हो, परन्त इसके बावजद वह 
इतनी वास्तविक बन जाये, जीवन से उसका कोई नाता न हो परन्तु 
इसके बावजूद वह जीवन से इतनी सम्बन्धित नज़र आये? जीवन के 
सही और न्यायपूर्ण संगठन के लिए आखिरत की धारणा का इतना 
* अधिक अनिवार्य होना खुद यह जाहिर करता है कि आखिरत इस 
सृष्टि का सबसे बड़ा तथ्य है। वह यद्यपि हमारी आंखों से हमको 
' नज़र नहीं आती परन्तु इसके बाद भी वह नज़र आने वाली तमाम 
चीजों से अधिक स्पष्ट और निश्चित है। किसी मनुष्य के लिए सम्भव 
नहीं है कि वह होश-हवास रखते हुए इसका इन्कार कर सके। 
तीसरी चीज जो खुदा के रसूल ने बताई है, वह इस सवाल का 
जवाब है कि मनृष्य खुदा के साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिए क्‍या करे? 
इस सिलसिले में जो कुछ आपने बताया है, उसको तीन शीर्षकों के 
तहत जमा किया जा सकता है-जिक्र, (स्मरण) इबादत (भक्ति) और 
कुर्बानी (बलिदान)-जिक्र से तात्पर्य यह है कि खुदा के साथ अपने . 
सम्बन्ध को प्रतिक्षण दिमांग्र में ताजा रखा जाए और ख़ुदा को उसकी 
तमाम हैसियतों के साथ इस तरह याद किया जाता रहे, जिस तरह 
रसूल ने याद करने के लिए बताया है। इबादतं से तात्पर्य वे मख्य 
शारीरिक कार्य हैं जो शरीअत में इसलिए मुकर्रर किये गये हैं, ताकि 


२१ 


मनष्य को भौतिक हैसियत पर उसकी आध्यात्मिक हैसियत को छा ” ' 


जाने दिया जाए और उससे ऐसे कार्य करांये जायें जो मनोवैज्ञानिक '* 
रूप से- उसको खुदा के करीब करने वाले हों। कुर्बानी अपनी 
भावनाओं औरं अपनी सम्पत्ति को खुदा की राह में खर्च-करने का 
नाम है। मनष्य जब अपनी प्यारी चीज़ों को खुदा के नाम पर कार्बान 
कर देता है तो मानो वह अपनी भावनाओं को खुदा के सुपुर्द कर देता 
है और अपनी रुचियों को आखिरी हद तक खुदा की ओर मोड़ने की 
कोशिश करता है। इस प्रकार यह कुर्बानी मनृष्य को उसके 
--पालनहार से बिल्कल क्रीब कर देती है। : 

यह जिक्र, इबादत और कूर्बानी एक दूसरे से अलग-अलग चीजें 
.नहीं हैं, बल्कि एक ही तथ्य के विभिन्‍न रूप॑ हैं। यह मनुष्य की ओर 
से अपने पालनहार के लिए अदि घनिष्ट सम्बन्ध का प्रदर्शन है। 
बन्दा जब अपने प्रिय स्वामी-को अपने दिल और जुबान से याद करता 


* , है तो उसको हम जिक्र कहते हैं। जब वह भावनाओं के साथ अपने 


आपको खूदा के आगे डाल देता है तो उसका नाम इबादत हैं और जब 
_>वह अपने जीवन की सारी पूंजी खुदा के लिए ल॒टा देता है तो यही 

क॒र्बानी. है। रसूल इन चीजों का तरीका बताता :है और इसके लिए 
' मनुष्य को तैयार करता है। , 

- चौथी .चीज' मनुष्य का व्यक्तिगत: आचरण और उसका 
सामाजिक नियम है। इस सम्बन्ध में अति विस्तृत और तफ्सीली 
आदेश दिये गये हैं। एक कर्त्तव्यपरायण और सत्यप्रिय जीवन के लिए 
जिन सहीतरीन उसूलों की जरूरत है, वे सभी सविस्तार बता दिये गये. 
हैं, परन्तु व्यक्तिगत उपदेशमात्र से किसी समाज के भीतर सामान्य 
सुधार नहीं हो सकता और न यही सम्भव है कि सुधार किये गये 
व्यक्ति देर तक अपने रवैये पर जमे रह सकें, इसलिए एक-व्यापक 
सामाजिक नियम भी हमारे सुपुर्द कर-दिंया. गया है, ताकि उसके 
आधार पर एक स्टेट बनाया जाये और सामाजिक स्तर पर खुदा की 
प्रसन्‍्नता कायम करने का प्रयासं किया जाये। दूसरे शब्दों में इस्लाम 


रर 


फ्रैवल एक व्यक्ति यां कुछ व्यक्तियों को ही ईश्वरवादी देखना नहीं 
त्राहता बल्कि पूर्ण मानव जाति में एक ऐसी क्रांति पैदा करना चाहता 
जिससे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की तमाम प्रतिकलतायें 
बृत्म हो जायें और तमाम मनुष्य मिल कर खुदा का आज्ञापालन 
फरने लगें। 

यह एक ऐसी विशेषता है जो तमाम धर्मों में केवल इस्लाम को 
एप्त है। जहां तक खुदा और उससे सम्बन्धित दसरी अलौकिक 
ग्रारणाओं का मामला है वे दूसरे धर्मों में भी किसी न किसी हद तक 
गैजूद हैं परन्तु अगर यह प्रश्न किया जाए कि क़्या किसी धर्म के 
|स ऐसा कोई सामाजिक ढांचा और संविधान-प्रणाली है जिसके 
आ्राधार पर स्टेट का.निर्माण किया जा सके, तो इसके उत्तर में इस्लाम 
है सिवा. किसी और धर्म का नाम नहीं लिया जा सकता। इस्लाम के 
।स वे बुनियादी कानून भी सही शक्ल में सुरक्षित हैं जो खदा ने 
गनुष्य के पथप्रदर्शन के लिए भेजे थे और इन काननों की ब॒नियाद 
(र-जो सामाजिक व्यवस्था बनाई गई थी, उसका रिकार्ड भी प्री 
रह इतिहास में मौजूद है। यह खुदा की एक ऐसी नेमत है जिसको 
प्रगर अपना लिया जाए तो वे तमाम समस्‍यायें हल हो सकती हैं जो 
प्राज की मानवता को घेरे हुए हैं। 


र३